आज अचानक तुम्हारी यादों ने फिर खटखटाया है मेरे मन के दरवाजें को । एक अजनबी चेहरे को देखा तो तुम्हारे ख्यालों के चलचित्र, मेरे मन के आईने में उभरने लगे । वैसे तो मै तुम्हे याद नही करती क्योंकि तुम्हे याद करने की कोई खास वजह ना थी । फिर भी कभी कभी तुम्हारे ख्यालों के ताने बाने बुन हीं लेती हूं जब भी तन्हा और उदास होती हूं । तुम ये मत समझना कि मुझे अब भी तुम्हारी जरूरत है । नही , अब मै, खुद की तलाश में इतनी व्यस्त हूं कि किसी और की कमी खलती हीं नही है । ये समझने की भूल मत करना की मै अकेली हूं । मेरी तरह ये शाम भी जाने क्यूँ तन्हा है । शायद इसे भी किसी अपने के खोने का गम है । वैसे हम दोनो की खूब जमती है । मै आँखे बंद करके अक्सर महसूस करती हूं ढलते सांझ की उदासी और कुछ हाल-ए-दिल बयां करती हूं अपने तनहाइयों के । इस मुस्कुराते चेहरे के पीछे ना जाने दर्द के कितने सिलवटें है । आंखो की चमक पहले जैसी हीं है बस कभी कभी खामोश रात के तिमिर में बदलते करवटों के बेबसी, अपने कुछ छींटों के निशां तकिए के ऊपरी परत पर छोड़ हीं जाते है ।
लेकिन तुम ये मत समझना ये तुम्हारे लिऐ है । मै तो बस वक़्त के थपेड़ो से थोड़ी सहम सी गयी हूं । आखिर मै भी तो औरो की तरह हीं हूं । रोक नही पाती ना खुद को भावनाओ में पिघलने से । करती तो हूं हर मुमकिन कोशिश कि दफना दूं हर झूठे उम्मीदों को और कही दूर चली जाऊं इस फरेब की दुनिया से,जहां चेहरे पर सादगी का मुखौटा पहने लोग दिन के उजालों में भी वफ़ा की नोक पर औरो को छलते है । अब तो किसी पर भरोसा करना भी एक गुनाह सा हो गया है जिसकी सजा सिर्फ फरेब है ।
खैर छोड़ो मुझे तो इन सब की आदत सी हो गयी है । जितनी भीड़ लोग उतने हीं अकेले है । हर कोई होठों पर हसी के चीथड़े लिबास लपेटे अंदर से रो रहा है । यहां सब दिखावे की महफ़िल है । लोगो को रोते रोते भी हसना पड़ता है ।
ओप्फो ! मै भी ना जाने क्या क्या लिखती रहती हूं । जानती हूं तुम मेरी दुनिया में हो हीं नही फिर भी तुम्हे लिखने की कोशिश करती हूं । तुम तो मेरी उस अधूरी कल्पना से हो जिसे पूरा करना भी चाहू तो भी नही कर सकती । इस लिऐ नही कि तुम मेरे नही हो बल्कि इसलिए कि तुम मेरे काबिल नही हो । तुम सिर्फ मेरे भीतर की महज वो कल्पऩा हो जो पानी के प्रतिबिम्ब सा है , जिस पर हकीकत के चंद बूंद पड़े तो वो पल भर में बिखर जाता है ।
हाँ ! तुम मेरी सिर्फ अधूरी कल्पऩा हो .........
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